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अभिषेक भारत |
अम्बेडकर के दलित उत्थान के मूल में पवित्रता तो थी किंतु दिशा उत्तम ना हो सकी ! जीवन भर संघर्ष करते रहे, संघर्ष को शांति में परिवर्तित ना कर सके। अंत में बौद्ध धर्म स्वीकार किया। हिंदू धर्म को त्याग कर जबकि वास्तव में हिंदू धर्म को त्यागा ही नहीं जा सकता। आत्मा की ओर जाते तो हिन्दू धर्म का और बेहतर समझ पाते, उसका त्याग नहीं करते। बुद्धि से सर्वश्रेष्ठ इसलिए थे क्योंकि उन्होंने बौद्ध धर्म को स्वीकार किया, नाकि इस्लाम या ईसाई धर्म को, क्योंकि वह मानते थे कि दोनोंके गर्भ में नफ़रत लालच और हिंसा ही भरी हुई है।
अम्बेडकर जीवन भर किसी न किसी से लड़ते रहे अपने जीवन के उत्तरार्द्ध में गांधीजी से लड़ते रहे। उन्होंने तो घोषणा तक कर दी थी कि 'उनका विरोध केवल गांधी से ही है।' उनकी स्थिति वही थी जो महाभारत में कर्ण की थी। वह भी अर्जुन से युद्ध जीतना ही अपने जीवन का लक्ष्य बना चुके थे, उसीभांति अंबेडकर भी गांधी से जीतकर उनसे श्रेष्ठ कहलाने का जिद्द पाल चुके थे।
अम्बेडकर जीवन भर जाति प्रथा का विरोध करते रहे किंतु उसी जाति ने उन्हें संजीवनी दी, उन्हें इतना महान नेता बनाया और आज उन्हीं जातियों के कारण अंबेडकर इतने लोकप्रिय और प्रासंगिक हैं। वे हर काम में तीव्रता करते, हर चीज जल्दीबाजी में चाहते थे। वह तुरंत जातियों को नष्ट कर देना चाहते थे। जातियों की ढांचागत व्यवस्था उनको चुभति थी, उनके अनुसार उच्च जातियों से उनकी सदैव अनबन होती रही, झगड़ा होता रहा। उनके वक्तव्य से यह जाहिर होता रहा कि उन जातियों के प्रति उनमें कोई संवेदनाएं नहीं थी, उनमें गुस्सा भरा था, उन्होंने भारतीय व्यक्ति को जाति के कटघरे में खड़ा कर दिया और जाति के चश्मे से ही देखा बजाय इसके कि वह प्राणी हैं। बुद्धि के कारण ही वह आर्य को बाहरी नहीं मानते थे किंतु शोषक अवश्य कहते रहे।
बुद्धि से वह जानते थे कि मनुष्य वैज्ञानिक रूप में जैविकी तौर में एक प्राणी है, जो जन्म के बाद सामाजिक ताने-बाने को धारण करता है या उस पर थोपा जाता है फ़िर भी अंबेडकर उसकी मुखालफत करते थे जबकि वास्तव में जिन्हें प्रेम की आवश्यकता थी उन्हें भी तर्क से तौला गया।
ग्रामों को अम्बेडकर भ्रष्टाचार का गढ़ मानते थे, कहते कि 'शहर ही लोगों का उत्थान कर पाएंगे' कदाचित यह उस समय की उनकी विवशता, उनका अनुभव रहा हो! किंतु फ़िर भी समूचे गांव व्यवस्था को नकार देना यह किसी भी दशा में उचित नहीं माना जा सकता। सच तो यह है कि गांव ने ही भारत को अभी तक जीवंत बना कर रखा है।
रोजगार के लिए अम्बेडकर कुटीर, लघु उद्योगों के बजाय बड़े-बड़े कार-कारखानों को तरजीह देते थे। वे मानते थे कि इससे परंपरागत जातिगत काम बंद हो जाएंगे। किंतु उद्योग तंत्र ने एक नए तरीके की जाति व्यवस्था क्रिएट कर दी और उसके अंदर उनका शोषण चलता रहा अंबेडकर इससे परिचित थे, उनके जीवन काल में ही प्रारंभ हो गया था, फ़िर भी बुद्धि का यह प्राणी अपनी उत्सुकता और इच्छापूर्ति के वश सैकड़ों हजारों साल से चल रहे कामों का प्रतिकार करता रहा, जहां व्यक्ति एकल होकर स्वेच्छा से आत्मनिर्भर हो रहा था।
अम्बेडकर विशुद्ध रूप से राज्य के पक्षधर थे। उनका स्पष्ट मानना था कि राज्य को मजबूत होना चाहिए। उनके दिमाग में यह अंत तक 'राज्य और नागरिक' स्पष्ट रहा। उन्होंने व्यक्ति को नागरिक माना जिसके मूल में कानून नियम होते हैं, उन्होंने कानून को सदैव इंसानी मनोभावनाओं के ऊपर रखा। हर कुछ कानून से ही हल करना चाहते थे। वह भलिभांति परिचित थे कि भारत जैसे विराट देश में ऐसे न जाने कितने नियम हैं जो अलिखित हैं। मनुष्य प्रेम भाव से हजारों साल से विचरण करता रहा है किंतु उन्हें तो प्रेम के लिए भी कानून चाहिए था।
सच तो यह है कि अम्बेडकर व्यक्ति को नागरिक के रूप में देखते थे, समूह की परेशानियां हल करना चाहते थे, समाज का कल्याण चाहते थे उन्होंने समूह को तरजीह दी बजाए व्यक्ति की। टकराव, कटुता का जीवन अंत तक झेल उनकी बुद्धि तर्क को पसंद करने लगी, वह उसी अनुरूप कर्म भी उत्पादित करने लगे।
बुद्धि की श्रेष्ठता इतनी थी कि उन्होंने गांधी से भी आगे जाकर इस्लामी लोलुपता को पहचान लिया। वह स्पष्ट मानते थे कि यह इस्लामी और इसाई तंत्र भारत को 'दारुल हरब' मानकर इसे छिन्न-भिन्न करने की मंशा रखते हैं। इसी हेतु उन्होंने मुसलमानों की इच्छा को 'हनुमान जी की पूंछ' कहा था।
पूरी दुनिया में मार्क्सवाद की जैसी आलोचना, जैसी विवेचना अम्बेडकर ने किया वैसा कदाचित ही कोई कर पाया हो! यह केवल बुद्धि के बल से ही हो सकता है। मार्क्सवाद बुद्धि से उपजा है और उसे बुद्धि से ही काटा जा सकता है, और अम्बेडकर यह करन में सबसे माहिर थे।
बुद्धि का यह प्राणी अपने जीवन में ही इस्लामी और दलित गठजोड़ को पहचान गया था और मुखर विरोध किया। क्षणिक सफलता को देखते हुए भी यह उसके दूरगामी दुष्परिणाम को भलीभांति देख पा रहे थे।
अंतःकरण परिवर्तन व शुद्धि को फिजूल कहने वाले अंबेडकर इकोनॉमी में phd करने वाले एशिया के पहले व्यक्ति, बेजोड़ अर्थशास्त्री, रुपयों की विवेचना करने में महारथी और आर्थिक, सांस्कृतिक सामाजिक ढांचे से भलीभांति परिचित थे। और वे इसके सुचारू क्रियान्वयन करने की वकालत करते हुए पूरी तरीके से विज्ञ भी थे।
संस्कृत को वैज्ञानिक भाषा मानने वाले अंबेडकर स्वयं शाकाहारी रहे, मांस भक्षण को केवल जीव हत्या तक सीमित नहीं रखे, बल्कि उसे वैश्विक आधार पर प्राणी जगत के लिए खतरा मानते थे। इसके पीछे उनका ठोस वैज्ञानिक मूल्यांकन था। वह मांस-भक्षियों के प्रति कठोर कानून चाहते थे फ़िर भी उसे लोगों की स्वेच्छा मान, नागरिकों की मूलभूत अधिकार मानकर उसकी वकालत भी कर देते थे। बुद्धि से वह जानते थे कि क्या सत्य है, क्या परिणाम होंगे। किंतु उसी बुद्धि के अनुरूप वह व्यक्ति को नागरिक में बदलते ही उसे सब अधिकार दे डालते थे।
अम्बेडकर जी बुद्धि से पार ना जा सके! बहुत जाते तो करुणा और दया के रूप में वह हृदय तक जा पाए, किंतु उससे आगे बढ़कर आत्मा की ओर न जाने वह क्यों नहीं जा पाए! यदि व आत्मा की ओर जाते तो अपनी उत्तमता, अपनी सार्थकता के बल से संपूर्ण भारत भूमि को और महानता प्रदान करते, समग्र मानव जाति का कल्याण सहज भाव से कर पाते।
श्री अम्बेडकर अपने अंतस में प्रविष्ट होते, अपनी आत्मा की ओर जाते तो ना केवल वो मुक्ति का मार्ग प्राप्त कर पाते, वरन् औरों के लिए भी मुक्ति का मार्ग सुलभ कर पाते।
◾अभिषेक भारत
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